हमारे ब्रह्मांड का जन्मदाता धर्म है। तारे नक्षत्र ग्रह उपग्रह एवम सम्पूर्ण सृष्टि धर्म द्वारा ही परिचालित और अस्तित्व में है, जो अनेक युगों से स्थापित है। धर्म का स्वरुप विराट और अद्वितीय है। धर्म के अभाव में प्रत्येक चेतन, अचेतन अथवा अन्य संरचनाओं का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा।
मानव का विकास समय के साथ धर्माचरण द्वारा ही निरन्तर सर्वत्र व्याप्त है। धर्म और समय अभिन्न तथा अविकार है। घातक और विकारी तत्व यदि धर्म के बाधक बनते हैं तो नियत समय के बाद स्वतः समाप्त हो जाते हैं और कालचक्र पुनः यथावत हो जाता है क्योंकि यही धर्म की गति है।
बाधाओं और विकारों का अस्तित्व अल्पकालिक ही होता है, धर्म के सामने उन्हें समाप्त ही होना होगा। वस्तुतः रक्षक होना ही धर्म है और तभी धर्म भी रक्षा कर सकता है, अन्यथा की स्थिति में अधर्मी और अधर्म को तो समाप्त होना ही होगा।
स्वार्थी मानव द्वारा धर्म को भी विद्रूप और विभाजित करने का षडयंत्र किया गया और हम मानव से हिंदू, मुसलमान, सिख, बौद्ध, जैन,पारसी, ईसाई, यहूदी, बहाई आदि बन गए। हम धर्म को स्वानुरूप परिभाषित करते गए।
भौतिक स्थिति और जलवायु के अनुसार मानव का रहनसहन, पोशाक, खानपान, आवागमन, संचरण आदि भिन्न हो सकता है किन्तु उसके नैतिक मूल्य और गुणों में भिन्नता लेशमात्र भी नहीं होनी चाहिए

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